अंतर्यात्रा
शब्द छूटे भाव की
अनुरागिनी में हो गयी .
देह छूटी.. श्वास की अनुगामिनी
में हो गयी .
क्या भला बाहर में खोजूँ ?
क्यूँ भला और किस से रीझूं?
आत्मरस का स्वाद पा,
आत्मसलिल में हो निमग्न
आत्मपद की चाह में ,
उन्मादिनी में हो गयी .
मैं तो अंतर्लापिका हूँ
कोई बूझेगा मुझे क्या?
जो हुए हैं 'स्व'स्थ स्वतः
उन महिम सुधि आत्मग्यों के
प्रेम के रसपान कि अधिकारिणी
मैं हो गयी,
शब्द छूटे भाव की
अनुरागिनी मैं हो गयी
देह छूटी.. श्वास की अनुगामिनी
मैं हो गयी !
२२-१-1998
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें