जननियाँ
वह तपस्वी थे अवतारी जगदगुर भटके थे वर्षों
हिमालय की चोटि से सागर तट तक ,कहलाये आर्ष पुरुष
उनका सन्देश -तुम शरीर नहीं आत्मा हो
जियो पर समझो तुम परे हो देह से ,भय नहीं प्रेम करो .
सुनकर ये सन्देश बन गए लाखों पुरुष उनके शिष्य .
मैं हंसी और मेरी हंसी रुकी ही नहीं .
काश ये गुरु और उनके अनुयायी सोचते और पूछते
आर्ष सत्य जीवन का अपनी जननी से तो क्यों भटकते
उम्र भर अहंकार के जंगलों में ?क्यों की माँ बतादेती यह सत्य चंद लम्हों में .
स्त्री है जो जीती है आजीवन शारीर से पृथक हो कर .
जब वर्जना परिजनों की, समाज की रौंदती है उसका मन
पोषती है केवल उसका तन .
सौंप दी जाती पति को, तिरोहित उस आँगन से जहां उगी थी.
रखती है हर कदम सोच सम्हल कर पति के घर मैं .
घिरी कंटीली नज़रों से.जबकि आत्मा भटकती है उसकी
तितली सी फूलों पर जहां पाया था स्नेह निश्छल कुछ आँखों में .
यंत्रवत वह देखती है अपना चीरहरण पति के घर में .
पति व ससुराल के सम्बन्धियों के अहंकार से जन्मे कितने ही
नृशंस पशु करते हैं आक्रमण उस पर- तानों के, व्यंग्बानों के
षड्यंत्रों के .पर वह भयभीत न हो कर सहती है सबकुछ
क्योंकि सम्हालनी है उसे इज्ज़त अपने वंश की .
केवल सौम्य मुस्कान उसकी कर देती है निरस्त
नृशंस पशुओं को .अष्टांग योग का शिखर है समाधि
अर्थात शरीर से विलग आत्मा की स्वतन्त्र उड़ान
परमात्मा में,शून्य में .
वह जीती है ताउम्र समाधी में
पति से नुचता,रुन्दता अपना शरीर देखती है
निर्विकार क्योंकि उसका तन है पति की धरोहर
और संतान की ज़रुरत .
वह पोसती है अपना तन ताकि बच्चे पलते रहें
हंसते रह्ने,चहकते रहें .
वह जलती है उम्रभर दीपशिखा सी.ताकि महके- खिले- दमके
वह तपस्वी थे अवतारी जगदगुर भटके थे वर्षों
हिमालय की चोटि से सागर तट तक ,कहलाये आर्ष पुरुष
उनका सन्देश -तुम शरीर नहीं आत्मा हो
जियो पर समझो तुम परे हो देह से ,भय नहीं प्रेम करो .
सुनकर ये सन्देश बन गए लाखों पुरुष उनके शिष्य .
मैं हंसी और मेरी हंसी रुकी ही नहीं .
काश ये गुरु और उनके अनुयायी सोचते और पूछते
आर्ष सत्य जीवन का अपनी जननी से तो क्यों भटकते
उम्र भर अहंकार के जंगलों में ?क्यों की माँ बतादेती यह सत्य चंद लम्हों में .
स्त्री है जो जीती है आजीवन शारीर से पृथक हो कर .
जब वर्जना परिजनों की, समाज की रौंदती है उसका मन
पोषती है केवल उसका तन .
सौंप दी जाती पति को, तिरोहित उस आँगन से जहां उगी थी.
रखती है हर कदम सोच सम्हल कर पति के घर मैं .
घिरी कंटीली नज़रों से.जबकि आत्मा भटकती है उसकी
तितली सी फूलों पर जहां पाया था स्नेह निश्छल कुछ आँखों में .
यंत्रवत वह देखती है अपना चीरहरण पति के घर में .
पति व ससुराल के सम्बन्धियों के अहंकार से जन्मे कितने ही
नृशंस पशु करते हैं आक्रमण उस पर- तानों के, व्यंग्बानों के
षड्यंत्रों के .पर वह भयभीत न हो कर सहती है सबकुछ
क्योंकि सम्हालनी है उसे इज्ज़त अपने वंश की .
केवल सौम्य मुस्कान उसकी कर देती है निरस्त
नृशंस पशुओं को .अष्टांग योग का शिखर है समाधि
अर्थात शरीर से विलग आत्मा की स्वतन्त्र उड़ान
परमात्मा में,शून्य में .
वह जीती है ताउम्र समाधी में
पति से नुचता,रुन्दता अपना शरीर देखती है
निर्विकार क्योंकि उसका तन है पति की धरोहर
और संतान की ज़रुरत .
वह पोसती है अपना तन ताकि बच्चे पलते रहें
हंसते रह्ने,चहकते रहें .
वह जलती है उम्रभर दीपशिखा सी.ताकि महके- खिले- दमके
जीवन की बगिया घर आँगन में.
वह जलाती है ज्योति से ज्योति जीवन की जब
वह जलाती है ज्योति से ज्योति जीवन की जब
कहती है बेटी से- तेरा घर यहाँ नहीं शादी के बाद बसेगा
तेरा तन धरोहर है पति की ,संतान की भले ही तेरी आत्मा भटके कहीं भी
तू देना उसे शान्ति मंदिर की मूर्ति में, धर्मग्रंथों में, कविता में, लोकगीतों में .
तू करना सेवा निस्वार्थ रिश्तो की, पति की, बच्चों की, फिर उनके बच्चों की .
मंदिर और आश्रम के परिसर में दीपक जलाते गुरु और उनके शिष्य
जलाते हैं दिए सोने,पीतल या मिटटी के और हो जाते हैं पूज्य
जबकि जीवन भर युगों से जलती स्त्रियाँ ,तपती जननियाँ
जो जलाती रहती हैं चुपचाप ज्योति जीवन की हर घर आँगन में
फिर भी रह जाती हैं अपूज्य अपमानित तिरस्कृत पुरुष के अहम् से .
तेरा तन धरोहर है पति की ,संतान की भले ही तेरी आत्मा भटके कहीं भी
तू देना उसे शान्ति मंदिर की मूर्ति में, धर्मग्रंथों में, कविता में, लोकगीतों में .
तू करना सेवा निस्वार्थ रिश्तो की, पति की, बच्चों की, फिर उनके बच्चों की .
मंदिर और आश्रम के परिसर में दीपक जलाते गुरु और उनके शिष्य
जलाते हैं दिए सोने,पीतल या मिटटी के और हो जाते हैं पूज्य
जबकि जीवन भर युगों से जलती स्त्रियाँ ,तपती जननियाँ
जो जलाती रहती हैं चुपचाप ज्योति जीवन की हर घर आँगन में
फिर भी रह जाती हैं अपूज्य अपमानित तिरस्कृत पुरुष के अहम् से .
5-4-09
ह्रदय की घाटी
छू न पायेंगे ह्रदय की घाटियों को ग्रीष्म के उजाले फुएं से मेह.
ओ हवाओं इन फुओं को ले उडाओ झलकने दो शांत नभ का नेह .
बादलों का प्रेम निष्ठुर बींध देता देह कभी रिमझिम, कभी गर्जन-क्रूर भर हुंकार आँधियों सा उमड़ता तो कभी चक्रावात ,कभी ओलों सा बरसकर बन गया एक भार .
घाटियों की भूमि नाम है मत करो अघात गुनगुनाती धूप से दो भूमि को श्रृंगार ,उलसने दो बीज फूलों के बनो वातास ,प्रेम में स्पर्श दैहिक खोजो न साभार ,
मुक्त फूलों की महक है मुक्त रश्मि-विलास मुक्त है उर मुक्त है स्वर मुक्त मधुकण हास मुक्ति सबकी कामना है मुक्ति में हैं राम
२७-२-09
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