मुक्तिगीत
मन
दूर कहीं मेरे इस घर से ,एक क्षितिज है ,वहीं कहीं इस वसुधा पर झुकता अम्बर है . हटा अँधेरा पुर्व रात्री का चंचल किरणें आयीं हैं ,नभ धरती के मिलन वक्र पर रक्तिम आभा छाई है .
किरणे बुनती मेरे द्वारे ताने -बाने ,मन मेरा अब तक सोया है चादर ताने .
जैसे कितने मीलों तक चल कर आया हो
कितनी बाधाओं से लड़कर फिर आया हो .
पिछली रातें,उन रातों की कितनी बातें ,कितनी बातों के कितने उलझे से तांते.
जहाँ कहीं बस कर्कश गर्जन काले टकराते मेघों का ,जहाँ सुना था मात्र एक स्वर उसने पागल आवेगों का .
वह अब भी गुमसुम ही रहता,जब तब बिलखा करता है.
रुक जाता है चलते चलते और पीछे देखा करता है -
जाने कितने ही युग बीते ,वह एक अकिंचन राही था जीता था अनजाने पन में , खुद ही से रूठा फिरता था .
कितनी रातें वह जागा था, बस तारे गिनता रहता था .
फिर खुद ही ताने -बानों से, अपनी एक उलझन बुनता था उलझन को फिर चुन लेता था अनदेखेपन से जीता था .
अपनी एक प्यास बुझाने को वह विष प्याले भी पीता था .
जब भी पीछे मुड़ जाता था,वह पागल सा हो जाता था .
वह कर्कश काला भूत उसे कितने ही दंश चुभाता था .
क्या हुआ उसे ?क्यों इतना बहका करता है ?
जब दुनिया कलियाँ चुनती है ,वह कांटे चुनता रहता है .
इतन क्यों तदपा करता है ?क्यों इतना तरसा करता है ?सूने एकांकीपन में ,कुछ सपने बुनता रहता है .
खुद को ही यह बहलाता है ,खुद ही से बातें करता है .
छिप छिप कर के मुस्काता है ,अपने पर हँसने लगता है .
पर फिर ही गम हो जाता है भीगी पलकों को मलता है .
कितना भोलापन है इसका,कितना निश्छल सा लगता है .
यह जीवन है या क्रंदन है या कोई अधूरी अभिलाषा ?बादल सा उमड़ा रोष है यह ,या मौसम गाढे कोहरे सा ?क्यों फूलों की तरुणाई का,सन्देश भी इसे न भाता ?क्यों कलियों की अंगढ़ाई का मद इसको छू भी न पाता?यह खोजी है ,यह पागल है ,कुछ पा गलने को आतुर है .
यह छोड़ धरा के आकर्षण ,है खोज रहा आनंद सघन .
तप,त्याग ,विराग ,क्षुधा इसकी ,बस ज्ञान पिपासा सुधा इसकी .
जब बोध उसे यह होने लगा ,ताज कार्य कलाप वह रोने लगा . जग के आकर्षण सब बंधन ,करते केवल तन -मन शोषण .
मैं खोज रहा मुक्ति का पथ ,बन हंस करूं कैसे विचरण ?उसने विश्लेषण किया सघन ,कितने उसने जीते थे रण.
कितनों से कैसे सुख भोगे ?कितनों ने कितने कष्ट दिए ?सब खेल धूप -छाओं सा था,न सुख सच था न दुःख सच था .
तो फिर सच क्या है आखिर जग में ? हूँ कौन भला मैं ?क्या है सच्चा मेरा उदगम ?जाना है मुझको और कहाँ ?प्रश्नों के शर से क्षत -विक्षत ,वह सिमट गया अपने भीतर ,हर ओर निराशा अंधियारा ,शोषण का भय, जैसे कोहरा -
ठिठुराए निर्धन भिक्षुक को,सिमटाये भय से कछए को .
यूं कटा समय, अस्तित्वहीन सा हो ,वह बस करता क्रंदन .
विश्लेषण -मंथन रत सब कर्म ,भाव ,विचारों का जैसे डूबे-उतरे कोई खारे भरमाते सागर में .
न दिखे कूल ,न मिले नाव,न आता हो जिसको की तरण.
संघर्ष और लाचारी बस,छटपटा रहा जैसे कोई -पाने को सांस ,जीवन -संबल .विषधर लिपटे हों अंगों से ,दें दंश ,कभी नोचें शरीर ,फुफकारें भर मुस्कान विषम .
फैला कर फन हो झूम रहे, दिखला कर के कोटि विषदंत .
रिसतें हो घाव ,दर्द भरे ,पी रक्त भरें हुंकार सर्प .
यूँ छोड़ आस जग से तब मन उद्दयत था तजने को जीवन .
तब प्रकट हुयी ज्वाला अन्दर करने को उसका ऊर्ध्व गमन .
एक तेज पुंज देखा नभ में,अंधियारे के श्यामल वन में .
यह तो प्रकाश का तेज पुंज !
आया कैसे मेरे सम्मुख ?मन चकित हुआ ,फिर भरमाया, यह है आखिर कैसी माया ? जितना सोचा उतना ही भ्रम !यह खेल नया था नया प्रक्रम,कुछ दृश्य दिखे आलोक भरे ,यह कौन लोक? यह कौन विधा ?क्यूँ अकस्मात मिट गयी क्षुधा ?बन गया गरल, कैसे की सुधा ?वह वशी भूत सा उडाता गया ,नव जीवन का था लोक विलग .
पीछे क्या था न याद रहा ,छुटा क्या था न याद रहा .
बस था आनंद प्रकाश प्रखर ,न शत्रु ,न भय ,न शोषण .
मैं कौन ?कौन यह तेज प्रखर ?जो मुझे दे गया नव जीवन !
मन आनंदित,भरमाया सा ,क्यूँ कोई मुझे दुलार रहा ?स्पर्श नहीं ,..न ही दर्शन ..,बस एक लहर आनंदमयी ...
'आगे खोजो 'गूंजा एक स्वर ,मन भर श्रद्धा -विशवास नया.., ..आनंदमग्न सा उड़ता चला ..स्फूर्ति नयी उल्लास नया ...
एक दिव्य लोक था दिव्य..जगत..केवल प्रकाश, आनंद सघन .
ज्यूँ खोज हुयी मन की पूरी यात्रा की अवधि हुयी पूरी .
निःसृत ,शांत वह तैर रहा निःसीम विलक्षण अम्बर में ..
मन जाग गया आनंद भरा पाया प्रकाश हर ओर भरा ..
अद्भुत जीवन, अद्भुत था मरण,अद्भुत था मन का जागरण ..
सीमाएं सारी टूट गयीं ,आकृतियाँ सारी फूट गयीं ..
केवल प्रकाश का रूपान्तर ..हो धरती ,जल ,अग्नि अम्बर ...
वह लोटा बन यात्रा पर विज्ञ,हर कर्म बना उसका अधियग्य..
न रहा वह अब करता -भोक्ता ,वह शेष मात्र अधिकृत होत्रा.. मन ने ज्युन्न यूं खोजा खुद को ,खोजा अपने अंतर्जग को .
उसका आधार निधान ,महत उसका उदगम आनंद अगम्य .
वह राग -द्वेष से परे जगत ,निःसीम शांत आनंद अनंत ..
द्वंदों का वहां है लेश नहीं ,अतृप्ति जहां है शेष नहीं ..
वह ध्यान मग्न हो खोता गया ,आनंदलोक में हो निमग्न ..
वाणी थी दिव्य था दिव्य बोध ,उसने माना वह शिशु अबोध ..
-"तुम सपने को सच समझ रहे इस लिए दुखों में उलझ रहे ..
मैं दूर नहिं,पल भर भी तुमसे,तुम अंश मेरे सिन्धु के बिंदु !
भय त्यागो ,जागृत हो अंशी ! लो सुनो मधुर मेरी वंशी !
भयभीत न हो विचलित हो न ,मैं त्याग तुम्हे कर सकता न अपना मन बस मुझको देदो जो हो तन का तो होने दो ..
हो उदासीन ,निर्भीक ,निष्ठ ,मत पाप -पुन्य में हो प्रतिष्ट.
तुम मान से मत बांधो मन को ,अपमान से नहीं आहात हो ,द्वंदों से सदा परे रह कर बस एक मन्त्र को करो ग्रहण ..
"इदं न मम '..इदं न मम ' यह मेरा ना! यह मेरा ना .!.
जो हैं अबोध ,भटके प्राणी वह ही कहते है -'इदं मम 'यह मेरा है! यह मेरा है ! मैं हूँ यह! मै हूँ यह !.
'मैं ' 'मेरा ' जो माने जग में,वह ही बंधते,दुःख पाते हैं ,जो त्याग 'अहम् ' मुझको प्रणते ,वह मुक्त तभी हो जाते है .
यह विश्व मेरे संकल्प से है ,अस्तित्व तुम्हारा मुझ से है .
मुझ को ही बस अपना जानो ,खोजो मुझको और पहचानो .
व्यक्तित्व से अस्तित्व की ओर
व्यक्ति अभिव्यक्ति है त्रिगुणों की ,अस्तितिव की ज़रा खोज करो .
अस्तित्व शून्य से उपजा है ,हो शून्य ज़रा विश्राम करो .
मिट जायेंगे भ्रम -भय -संशय, आनंद सिन्धु जब उमडेगा .
अंतःकरण का मधुर लोक जीवन ज्योतिर्मय कर देगा .
बस इतना सा कर्त्तव्य बोध तुमको विराट दर्शन देगा ..
सारे ग्रंथों का सार -बोध ,अपने ही अन्दर चमकेगा ..
जो सात बिंदु है शक्ति के वे सात आकाशीय स्तर..
मूलाधार है भूलोक ;स्वाधिष्ठान है भुवर्लोक ;मणिपूरक है स्वर्गलोक ;विशुद्ध चक्र है जनलोक .आज्ञा चक्र है सत्य लोक .
मस्तिष्क में छिपे ब्रह्म लोक ,विष्णु लोक व रूद्र लोक .
पर है कपाल का केंद्र बिंदु राधा -माधव का रासलोक.
जब बाह्य जगत का छोड़ मोह इन्द्रियाँ त्याग विषयों के भोग ,मन संग खोजती ईश्वर को ,चेतना तभी उठती ऊपर .
नीचे से ऊंचे केन्द्रों को .धरती से आगे अम्बर को ..
दर्शन होते अद्भुत जग के, सुन पड़ती धुन अद्भुत,विचित्र ..
अस्तित्व बदल जाता है यूं , हिम खंड पिघल जाता है ज्यूँ केवल जल ,तरल ,अरूप ,तृप्त ,न रहे वहां कोई अतृप्त .
जब प्राण उमड़ते हैं ,ऊपर आनंद लहर करती विभोर ..
सब देव वहां करते स्वागत मन पाए खोया राज्य महत ..
गोलोक में छिपे रासेश्वर ,आनंद कांड सृष्टा -ईश्वर .
छवि उनकी कर देती प्रमत्त , मन हो आतुर और उन्मत्त चाहे हो जाऊं विसर्जित अब ,क्या भला शेष पाने को अब ?चुन लेता है जिसको ईश्वर ,परवश वह हो जाता किंकर ..
मन
दूर कहीं मेरे इस घर से ,एक क्षितिज है ,वहीं कहीं इस वसुधा पर झुकता अम्बर है . हटा अँधेरा पुर्व रात्री का चंचल किरणें आयीं हैं ,नभ धरती के मिलन वक्र पर रक्तिम आभा छाई है .
किरणे बुनती मेरे द्वारे ताने -बाने ,मन मेरा अब तक सोया है चादर ताने .
जैसे कितने मीलों तक चल कर आया हो
कितनी बाधाओं से लड़कर फिर आया हो .
पिछली रातें,उन रातों की कितनी बातें ,कितनी बातों के कितने उलझे से तांते.
जहाँ कहीं बस कर्कश गर्जन काले टकराते मेघों का ,जहाँ सुना था मात्र एक स्वर उसने पागल आवेगों का .
वह अब भी गुमसुम ही रहता,जब तब बिलखा करता है.
रुक जाता है चलते चलते और पीछे देखा करता है -
जाने कितने ही युग बीते ,वह एक अकिंचन राही था जीता था अनजाने पन में , खुद ही से रूठा फिरता था .
कितनी रातें वह जागा था, बस तारे गिनता रहता था .
फिर खुद ही ताने -बानों से, अपनी एक उलझन बुनता था उलझन को फिर चुन लेता था अनदेखेपन से जीता था .
अपनी एक प्यास बुझाने को वह विष प्याले भी पीता था .
जब भी पीछे मुड़ जाता था,वह पागल सा हो जाता था .
वह कर्कश काला भूत उसे कितने ही दंश चुभाता था .
क्या हुआ उसे ?क्यों इतना बहका करता है ?
जब दुनिया कलियाँ चुनती है ,वह कांटे चुनता रहता है .
इतन क्यों तदपा करता है ?क्यों इतना तरसा करता है ?सूने एकांकीपन में ,कुछ सपने बुनता रहता है .
खुद को ही यह बहलाता है ,खुद ही से बातें करता है .
छिप छिप कर के मुस्काता है ,अपने पर हँसने लगता है .
पर फिर ही गम हो जाता है भीगी पलकों को मलता है .
कितना भोलापन है इसका,कितना निश्छल सा लगता है .
यह जीवन है या क्रंदन है या कोई अधूरी अभिलाषा ?बादल सा उमड़ा रोष है यह ,या मौसम गाढे कोहरे सा ?क्यों फूलों की तरुणाई का,सन्देश भी इसे न भाता ?क्यों कलियों की अंगढ़ाई का मद इसको छू भी न पाता?यह खोजी है ,यह पागल है ,कुछ पा गलने को आतुर है .
यह छोड़ धरा के आकर्षण ,है खोज रहा आनंद सघन .
तप,त्याग ,विराग ,क्षुधा इसकी ,बस ज्ञान पिपासा सुधा इसकी .
जब बोध उसे यह होने लगा ,ताज कार्य कलाप वह रोने लगा . जग के आकर्षण सब बंधन ,करते केवल तन -मन शोषण .
मैं खोज रहा मुक्ति का पथ ,बन हंस करूं कैसे विचरण ?उसने विश्लेषण किया सघन ,कितने उसने जीते थे रण.
कितनों से कैसे सुख भोगे ?कितनों ने कितने कष्ट दिए ?सब खेल धूप -छाओं सा था,न सुख सच था न दुःख सच था .
तो फिर सच क्या है आखिर जग में ? हूँ कौन भला मैं ?क्या है सच्चा मेरा उदगम ?जाना है मुझको और कहाँ ?प्रश्नों के शर से क्षत -विक्षत ,वह सिमट गया अपने भीतर ,हर ओर निराशा अंधियारा ,शोषण का भय, जैसे कोहरा -
ठिठुराए निर्धन भिक्षुक को,सिमटाये भय से कछए को .
यूं कटा समय, अस्तित्वहीन सा हो ,वह बस करता क्रंदन .
विश्लेषण -मंथन रत सब कर्म ,भाव ,विचारों का जैसे डूबे-उतरे कोई खारे भरमाते सागर में .
न दिखे कूल ,न मिले नाव,न आता हो जिसको की तरण.
संघर्ष और लाचारी बस,छटपटा रहा जैसे कोई -पाने को सांस ,जीवन -संबल .विषधर लिपटे हों अंगों से ,दें दंश ,कभी नोचें शरीर ,फुफकारें भर मुस्कान विषम .
फैला कर फन हो झूम रहे, दिखला कर के कोटि विषदंत .
रिसतें हो घाव ,दर्द भरे ,पी रक्त भरें हुंकार सर्प .
यूँ छोड़ आस जग से तब मन उद्दयत था तजने को जीवन .
तब प्रकट हुयी ज्वाला अन्दर करने को उसका ऊर्ध्व गमन .
एक तेज पुंज देखा नभ में,अंधियारे के श्यामल वन में .
यह तो प्रकाश का तेज पुंज !
आया कैसे मेरे सम्मुख ?मन चकित हुआ ,फिर भरमाया, यह है आखिर कैसी माया ? जितना सोचा उतना ही भ्रम !यह खेल नया था नया प्रक्रम,कुछ दृश्य दिखे आलोक भरे ,यह कौन लोक? यह कौन विधा ?क्यूँ अकस्मात मिट गयी क्षुधा ?बन गया गरल, कैसे की सुधा ?वह वशी भूत सा उडाता गया ,नव जीवन का था लोक विलग .
पीछे क्या था न याद रहा ,छुटा क्या था न याद रहा .
बस था आनंद प्रकाश प्रखर ,न शत्रु ,न भय ,न शोषण .
मैं कौन ?कौन यह तेज प्रखर ?जो मुझे दे गया नव जीवन !
मन आनंदित,भरमाया सा ,क्यूँ कोई मुझे दुलार रहा ?स्पर्श नहीं ,..न ही दर्शन ..,बस एक लहर आनंदमयी ...
'आगे खोजो 'गूंजा एक स्वर ,मन भर श्रद्धा -विशवास नया.., ..आनंदमग्न सा उड़ता चला ..स्फूर्ति नयी उल्लास नया ...
एक दिव्य लोक था दिव्य..जगत..केवल प्रकाश, आनंद सघन .
ज्यूँ खोज हुयी मन की पूरी यात्रा की अवधि हुयी पूरी .
निःसृत ,शांत वह तैर रहा निःसीम विलक्षण अम्बर में ..
मन जाग गया आनंद भरा पाया प्रकाश हर ओर भरा ..
अद्भुत जीवन, अद्भुत था मरण,अद्भुत था मन का जागरण ..
सीमाएं सारी टूट गयीं ,आकृतियाँ सारी फूट गयीं ..
केवल प्रकाश का रूपान्तर ..हो धरती ,जल ,अग्नि अम्बर ...
वह लोटा बन यात्रा पर विज्ञ,हर कर्म बना उसका अधियग्य..
न रहा वह अब करता -भोक्ता ,वह शेष मात्र अधिकृत होत्रा.. मन ने ज्युन्न यूं खोजा खुद को ,खोजा अपने अंतर्जग को .
उसका आधार निधान ,महत उसका उदगम आनंद अगम्य .
वह राग -द्वेष से परे जगत ,निःसीम शांत आनंद अनंत ..
द्वंदों का वहां है लेश नहीं ,अतृप्ति जहां है शेष नहीं ..
वह ध्यान मग्न हो खोता गया ,आनंदलोक में हो निमग्न ..
वाणी थी दिव्य था दिव्य बोध ,उसने माना वह शिशु अबोध ..
-"तुम सपने को सच समझ रहे इस लिए दुखों में उलझ रहे ..
मैं दूर नहिं,पल भर भी तुमसे,तुम अंश मेरे सिन्धु के बिंदु !
भय त्यागो ,जागृत हो अंशी ! लो सुनो मधुर मेरी वंशी !
भयभीत न हो विचलित हो न ,मैं त्याग तुम्हे कर सकता न अपना मन बस मुझको देदो जो हो तन का तो होने दो ..
हो उदासीन ,निर्भीक ,निष्ठ ,मत पाप -पुन्य में हो प्रतिष्ट.
तुम मान से मत बांधो मन को ,अपमान से नहीं आहात हो ,द्वंदों से सदा परे रह कर बस एक मन्त्र को करो ग्रहण ..
"इदं न मम '..इदं न मम ' यह मेरा ना! यह मेरा ना .!.
जो हैं अबोध ,भटके प्राणी वह ही कहते है -'इदं मम 'यह मेरा है! यह मेरा है ! मैं हूँ यह! मै हूँ यह !.
'मैं ' 'मेरा ' जो माने जग में,वह ही बंधते,दुःख पाते हैं ,जो त्याग 'अहम् ' मुझको प्रणते ,वह मुक्त तभी हो जाते है .
यह विश्व मेरे संकल्प से है ,अस्तित्व तुम्हारा मुझ से है .
मुझ को ही बस अपना जानो ,खोजो मुझको और पहचानो .
व्यक्तित्व से अस्तित्व की ओर
व्यक्ति अभिव्यक्ति है त्रिगुणों की ,अस्तितिव की ज़रा खोज करो .
अस्तित्व शून्य से उपजा है ,हो शून्य ज़रा विश्राम करो .
मिट जायेंगे भ्रम -भय -संशय, आनंद सिन्धु जब उमडेगा .
अंतःकरण का मधुर लोक जीवन ज्योतिर्मय कर देगा .
बस इतना सा कर्त्तव्य बोध तुमको विराट दर्शन देगा ..
सारे ग्रंथों का सार -बोध ,अपने ही अन्दर चमकेगा ..
जो सात बिंदु है शक्ति के वे सात आकाशीय स्तर..
मूलाधार है भूलोक ;स्वाधिष्ठान है भुवर्लोक ;मणिपूरक है स्वर्गलोक ;विशुद्ध चक्र है जनलोक .आज्ञा चक्र है सत्य लोक .
मस्तिष्क में छिपे ब्रह्म लोक ,विष्णु लोक व रूद्र लोक .
पर है कपाल का केंद्र बिंदु राधा -माधव का रासलोक.
जब बाह्य जगत का छोड़ मोह इन्द्रियाँ त्याग विषयों के भोग ,मन संग खोजती ईश्वर को ,चेतना तभी उठती ऊपर .
नीचे से ऊंचे केन्द्रों को .धरती से आगे अम्बर को ..
दर्शन होते अद्भुत जग के, सुन पड़ती धुन अद्भुत,विचित्र ..
अस्तित्व बदल जाता है यूं , हिम खंड पिघल जाता है ज्यूँ केवल जल ,तरल ,अरूप ,तृप्त ,न रहे वहां कोई अतृप्त .
जब प्राण उमड़ते हैं ,ऊपर आनंद लहर करती विभोर ..
सब देव वहां करते स्वागत मन पाए खोया राज्य महत ..
गोलोक में छिपे रासेश्वर ,आनंद कांड सृष्टा -ईश्वर .
छवि उनकी कर देती प्रमत्त , मन हो आतुर और उन्मत्त चाहे हो जाऊं विसर्जित अब ,क्या भला शेष पाने को अब ?चुन लेता है जिसको ईश्वर ,परवश वह हो जाता किंकर ..
महारास
जब भाव समाधी लगती है तब प्रेम की वर्षां होती ज्यूँ -
घन बरस निरंतर उमड़ घुमड़,ले बहा चले धरती को ज्यूँ .
बादल ,बिजली ,पागल मारुत ,मिलकर धरती को पिघलाते .
विचलित ,स्खलित कर भू स्तर ,सागर में ज्यूँ पहुंचा जाते ..
पर ध्यान समाधि लगती जब ,चेतना शेष रह जाती है .
व्यक्तित्व विसर्जित हो जाता ,अस्तित्व बोध ही रह जाता .
न रूप ,न नाम ,न कुछ कर्त्तव्य ,एक मात्र शांत अस्तित्व बोध ..
वह महामोक्ष ,वह महाज्ञान , वह महा रास को महा बोध !
स्र्तिष्टि के कण कण में मुखरित प्रकृति -पुरुष का युगल रास इच्छा स्फुरित ,होती पूरी दे ईश्वर सत्ता का आभास ..
है पूर्ण ब्रह्म ,अदृश्य ,अनंत ,उसका न नाम ,न रूप .न रंग ..
वह एक सत्य जो वर्णनातीत .वह मौन ,शांत परिवर्तन हीन .
जब भाव समाधी लगती है तब प्रेम की वर्षां होती ज्यूँ -
घन बरस निरंतर उमड़ घुमड़,ले बहा चले धरती को ज्यूँ .
बादल ,बिजली ,पागल मारुत ,मिलकर धरती को पिघलाते .
विचलित ,स्खलित कर भू स्तर ,सागर में ज्यूँ पहुंचा जाते ..
पर ध्यान समाधि लगती जब ,चेतना शेष रह जाती है .
व्यक्तित्व विसर्जित हो जाता ,अस्तित्व बोध ही रह जाता .
न रूप ,न नाम ,न कुछ कर्त्तव्य ,एक मात्र शांत अस्तित्व बोध ..
वह महामोक्ष ,वह महाज्ञान , वह महा रास को महा बोध !
स्र्तिष्टि के कण कण में मुखरित प्रकृति -पुरुष का युगल रास इच्छा स्फुरित ,होती पूरी दे ईश्वर सत्ता का आभास ..
है पूर्ण ब्रह्म ,अदृश्य ,अनंत ,उसका न नाम ,न रूप .न रंग ..
वह एक सत्य जो वर्णनातीत .वह मौन ,शांत परिवर्तन हीन .