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गुरुवार, 16 अगस्त 2012

विश्व नीयन्ते

विश्व नीयन्ते ! खीज उठा है आज विकल मेरा मन -प्राण ,
तुम कैसे मायावी हो ,    की खेला करते खेल महान !
अपनी ही   माया का जालक ; अपना ही सारा संधान ,
अपने ही रंगों की  रचना;  स्व-निर्मित गुणों का गान!
मुझ से ना छिप पाया अच्युत तेरा मधुर -विराट स्वरूप ,
कितनी ही  बातों में तुमने,  दिख लाये है रूप -अरूप !
कितने रूपों  में आ आकर तुम मुझ को छल जाते हो ,
पहले मोहो, फिर पास -आकर दूर बहुत हो जाते हो !
दे जाते   हो   फिर से मुझ को , धाराएं नव चिंतन की.
कुछ में आंसू ,कुछ में पीड़ा ,कुछ में रेखाएं दुःख की !
दिया हुआ दुःख तेरा है यह सोच सम्हल मैं जाती हूँ  .
सुख से अधिक मान कर दुःख को निकट तेरे आ जाती हूँ !

1982

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