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गुरुवार, 29 नवंबर 2012









प्राण मेरे !
खोजती हूँ मैं  तुझे ही.आज भी मैं हूँ अपरिचित विश्व से इस!
तू कहाँ जा खो गया है दिव्य मेरे?
आज भी मैं तो तुझे ही खोजती हूँ प्राण मेरे !
ज्ञात मुझको भाव तेरा ,'मैं'' स्वयं अज्ञात हूँ .
सत्य है तू एक मेरा , मैं तो मिथ्या-गात हूँ





यामिनी !


मैं शांत यामिनी हूँ ,तुम हो मयंक मेरे !
घनघोर कालिमा हूँ ,अविरक्त श्यामली हूँ !
!तुम ज्योति -पुंज मेरे !
तुम हो मयंक मेरे !






विवेक ख्याति






मेरे अन्दर मेरे बाहर, फैले दो जग सामानांतर ,बीज धरा के उर में फल लगते हैं बाहर  .
बीज बने  आधार वृक्ष के जनम -मरण का ,बाहर का संसार,प्रतिफलन अन्तःकरण का .
स्मृतियों के उडगन उर में झिलमिल -झिलमिल ,आशाओं  की कलियाँ फिर से झूमे खिल -खिल .
फूलों की घाटी सा जीवन महक रहा फिर ,चन्दन सी शीतलता पर है मदिर निलय फिर .
यह उन्माद नहीं निशीथ -संकर्षित जल का,यह आवेश नहीं, प्रज्ज्वलन नहीं अनल का!
.हिमखंडों से द्रवीभूत ज्यूँ जल सागर का ,कलिका सी खिलने का अनुभव है यह उर का .
यह आलोक नहीं दीप -शशि या  भास्कर का ,यह आभामंडल हिरण्यमय पीताम्बर का ..!
यह आनंद अहम् विस्मृत "आत्मरमण "का,यह प्रकाश तप  -परिष्कृत,   अंतःकरण का ..!

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