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गुरुवार, 25 जुलाई 2013

प्रेम तुम्हारा ,

प्रेम तुम्हारा ,इतना अद्भुत .
कर देता मधुमय सँसार !
क्षण भर पहले शुष्क था जगत ,
रस -विहीन था हर सँधान .
मन विक्षिप्त था ,प्राण थे मलिन ,
मात्र साथ था रोष विकार
उत्पीड़न की छाप प्रखर थी ,
जटिल यातना उभर रही थी ,
भयाक्रांत था मानस आज ,
अन्धकार था दुर्निवार ..
जिस पल प्रेम तुम्हारा पाया ,
मिटा ह्रदय का दुःख मय भार ,
एक अनूठा ज्वार सा उठा
बना मधुर मेरा सँसार ..
रोम -रोम उल्लसित हो उठा ,
अंग -अंग में सौरभ वास ,
मन उत्प्लावित हुआ स्वतः ही
मेरे सुख का सुंदर सार ..
1985

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