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गुरुवार, 25 जुलाई 2013

अंतर्लाप



आओ, दोनों साथ बैठें
मैं कहूँ तुम सुनते जाओ
बस निरंतर ..
या कहो तुम और
फिर, मैं मूक होलूँ ..
टूटने न दो अपितु
यह तान अब तो
रात्रि का क्रम टूट जाए
तब तलक तो ..
प्रश्न जब उठता ,
नहीं उत्तर मिला है
जब सुनूँ न मैं
तो तुम क्यों बोलते हो ?
बड़े अद्भुत हो मुझ में
बसने वाले रूप मेरे !
नहीं देखा.. .फिर भी ,
तुम्हे है रूप माना
नहीं अनुसार मेरे
चल रहे फिर भी
हो मेरे ......
तुम्हारा साथ, सच मानो
बहुत दुर्लभ मुझे है
जुड़ा एकांत से है साथ
मेरा हेतु तेरे ..
नहीं तू बोलता कुछ ..
जा तेरी इच्छा ..
रहेगा आमरण तू साथ मेरे
यही तो सत्य है एक
न कि मेरी कोई इच्छा ..
1981

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