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मंगलवार, 16 जुलाई 2013

सुख

टटोला बहुत पलों तक
 अपने अहाते को 
हर ओर ,हर दिशा में ,
नहीं मिला वह 
जिसे कहते हैं सुख.
मेरे आँगन में नहीं था 
शायद ड्योडी पर,
धुंधलके में  दिखा ..'कुछ '
मेरे हाथ टकराए उससे , अँधेरे में ,
वह दर्पण था जिसमे एक प्रतिबिम्ब था 
जिसकी  आँखों में कुछ बिंदु थे चमकते से 
मैंने उन्हें पलकों में सहेज लिया ...
आर्द्र हो आयीं दोनों आँखें
पाकर अपनी अमानत को ,
वही था सुख मेरा 
अपने आंसू पी जाने का .
1977

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