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सोमवार, 15 जुलाई 2013

भँवर

जाना रे उस पार तुझे !
खडा हुआ गीली माटी पर 
अस्थिर मन है कोमल है तन 
तू चल देगा नौका लेकर 
आगे है मझधार ,भँवर 
फंस जायेगा रे तू पागल !
सोच समझ ले राह मगर ,
तू क्यों चिंता करता इसकी ?
तेरी नौका जब चल ही दी 
तो पार लगेगी भी जाकर 
उस तीव्र भँवर में जता है 
फिर गह्वर में समां जाता है 
या घूर्णन में फंस कर भी तू 
न खो रे धैर्य !.संजो ले मन 
लहरों के साथ साथ उमड़े 
जलकण बन बिखरे फिर 
विचार ..जीवन आधार ;
तू क्यों परवाह करता इतनी ?
क्या कहने की सामर्थ्य तेरी ?
क्या करने की सामर्थ्य तेरी ?
तेरा जीवन -पालन -भंजन 
कुछ भी तो तेरे हाथ नहीं ..
क्या चिंता है रे विकल सुमन ?
कितने आये इस उपवन में ..
कित्नानों ने गीत सुनाये हैं ..
कितनो के स्वर तो केवल 
बस उनके मन ही समाये हैं ..
सब कुछ सब करते हैं केवल 
अपनी संतुष्टि हेतु सदा ..
क्या नया कह रहा आज ,भाल 
तू क्यों इतना इठलाह  रहा ?
तू संशोधन कर लेता बस
 चिर पुराण उन्मादों में   
तू कर लेता अनुकूल उन्हें
 अपने अकिंचन अवसादों के 
1979
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