एक नदी है -भावनाओं की,
कभी सूख जाती है, कभी तेज बारिश से
बाढ़ आ जाती है...
नदी पर एक पुल है-
बनता -बिगड़ता;जुड़ता - उखड़ता ;
टूटता -बहता रहता है -समय के साथ .
इसे ज़िंदगी कहती हूँ मैं .
जब भी टूट जाता है -बाढ़ आ जाने से ,
मुझे अपने हाथों फिर, एक - एक पत्थर
पिछले छोटे - बड़े अनुभवों के ,
बटोरने पड़ते हैं ,नदी में जमाने पड़ते हैं ,
भावों के बीच कहीं अनुभव -विचारों के खम्भे,
फिर से खड़े करने होते हैं.
पत्थर और गारे से,मिटटी और सांचों से ,खम्भे खड़े करती हूँ
पुल को फिर बनाना है ,नदी पार करनी है...
एक एक खम्भा यहाँ बहुत कुछ जताता है ,
कभी गीत बन जाता है ;कभी मीत बन जाता है ;
पुल का भार सहता है ,नया मार्ग देता है ;
और मैं फिर से -पुल से गुजरने लगती हूँ ,
अक्सर भूल जाती हूँ कि -
इस सड़क के नीचे भी, एक बहती नदिया है
जिसको इसी तरह पार करना है ,
इसी पर से मुझ को गुज़रना है ,
चाहे सूख जाए यह ,चाहे तेज़ बहती हो
जो भो हो जैसी हो ,मुझे तो अभी इसे
पूरी तरह भूल जाना है ,मालुम है खुद
ही बाढ़ आती है ,पुल हिलने लगता है ,
टूट कर बहने लगता है और तब ,
केवल तब मुझे
इसकी याद आती है !
1983
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें