आज
अपनी परिपक्वता से
मुझे कोई शिकवा तो नहीं
फिर भी जैसे
कभी होता है एहसास
उम्र की तरुणाईयों से
वंचित होने का अकस्मात
कभी अपने में व्यस्त
किसी क्षणिक सुख की ललक
करती है विवश, पीछे मुड़ने को
एक बार फिर उन
नाज़ुक पलों को ढूंढने को
न जाने कैसे धीरे धीरे
चल कर आ जाता
कर्म कुटिल जीवन
कैसे चुपके से छुट जाता
भोलापन
हर अशांति ने मेरे मन को ललकारा
जीवन को धिक्कारा
मन ने फिर
निश्चय कर डाला
अपनी निश्छलता को त्यागा
ताना बाना सा बुन डाला
जीवन को पुनः बदल डाला..
1981
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