विश्व नियन्ते,खीज उठा है
आज विकल मेरा मन -प्राण
तुम कैसे मायावी हो कि
खेल करते खेल महान
अपने ही प्रतिबिम्ब अपरिमित
अपना ही सारा संधान
अपनी ही माया का जालक ,
स्व निर्मित गुणों का गान
मुझ से न छिप पाया अच्युत
तेरा मधुर विराट स्वरूप
कितनी ही बातों से तूने
दिखलाए हैं रूप अनूप
जिस छवि को मैं ध्यान रही हूँ
जिन रूपों को जान रही हूँ
नहीं प्रकट होता तू अक्षर
ओम यही बस जान रही हूँ
कितने रूपों में आ आकर
तुम मुझ को छल जाते हो
पहले मोहो फिर पास आकर
दूर बहुत हो जाते हो
दे जाते हो फिर से मुझको
धाराएं नव चिंतन की
कुछ में आंसू कुछ में पीड़ा
कुछ में रेखाएं दुःख की
दिया हुआ दुःख तेरा है
यह सोच सम्हल मैं जाती हूँ
सुख से अधिक मान कर दुःख
को निकट तेरे आजाती हूँ
1981
आज विकल मेरा मन -प्राण
तुम कैसे मायावी हो कि
खेल करते खेल महान
अपने ही प्रतिबिम्ब अपरिमित
अपना ही सारा संधान
अपनी ही माया का जालक ,
स्व निर्मित गुणों का गान
मुझ से न छिप पाया अच्युत
तेरा मधुर विराट स्वरूप
कितनी ही बातों से तूने
दिखलाए हैं रूप अनूप
जिस छवि को मैं ध्यान रही हूँ
जिन रूपों को जान रही हूँ
नहीं प्रकट होता तू अक्षर
ओम यही बस जान रही हूँ
कितने रूपों में आ आकर
तुम मुझ को छल जाते हो
पहले मोहो फिर पास आकर
दूर बहुत हो जाते हो
दे जाते हो फिर से मुझको
धाराएं नव चिंतन की
कुछ में आंसू कुछ में पीड़ा
कुछ में रेखाएं दुःख की
दिया हुआ दुःख तेरा है
यह सोच सम्हल मैं जाती हूँ
सुख से अधिक मान कर दुःख
को निकट तेरे आजाती हूँ
1981
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