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बुधवार, 17 जुलाई 2013

भ्रम



खड़े -खड़े ही यहाँ तो 
ज़मीन सरकती है !
हवाएं आलम से 
अनमनी सी लगती हैं !
क्या कहने राही के ,
जहां सड़कें चलती हैं !
क्या करे मुसाफिर भी ,
जहाँ दिशाएँ भटकती हैं !
1981

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