सघन तिमिर मय नीलाकाश
रात्रि की शान्ति
शान्ति में मिट जाती विश्रांति
उमड़ने दो कोई स्वर आज ,
गूँजने दो कोई गुंजार ..
शांत क्यूँ रहता है नभ आज ?
मूक तारावलियां स्नात
घुल चुका दिन भर का अवसाद
कहीं जाकर अम्बर के बीच
खुल गया एक अकिंचन पाट !
अपरिचित यायावर के हेतु ,
रात्रि जब इतनी मोहक हो ,
'सबेरा फीका लगता है ..
रात्रि की पर, हर एक सिलवट
सबेरा ही तो धोता है !
1981
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें