कांच नहीं मिट्टी हूँ
टूटी हूँ फूटी हूँ
आँधियों में उड़ती हूँ
गह्वरों में जमती हूँ
मिटती ही रहती हूँ
व्यर्थ नहीं जीती हूँ
पैरों से रौंद लो
खेतों में जोत दो
भट्टियों में झोंक दो
नदियों में फेंक दो,
फूल पर खिलाऊँगी
फसलें भी उगाउंगी ,
घर नए बनाउंगी,
ठोस बनके उभरुंगी
नए शहर बसाउंगी
कांच नहीं मिट्टी हूँ
हार नहीं पाऊँगी .
1983
adha akash hamara
जवाब देंहटाएं