रात्रि
एक भ्रान्ति
कितनी शान्ति
फिर भी, अंतर में क्रान्ति
अधिक मोहक ,अधिक सरला
नीरवता में गूँजा करते
मौन भाव कुछ
शयन हेतु यदि यही यामिनी
जागृत क्यूँ मैं ?
मौन अरे मैं हूँ किन्तु
ये कैसे स्वर हैं ?
मेरे अंतस से उमड़े ये कैसे रव हैं ?
एक श्रोता बन गया है भाव' मैं 'का
आ रही आलोचनाएँ हर दिशा से
'यह ' वही क्या जो हवा के साथ बह ले ?
'यह ' वही शायद जो झंझाओं को झेले
एक पल जो साथ रह कर दूर हो ले ..
खोज में संतोष की हर और डोले ..
मूक हो कर 'मैं ' मेरा सुनता रहेगा
रुठते स्वर ..
प्रात होने तक
अनिश्चित भाव होगा
सुन सकूँ फिर ,पर
कहाँ अवकाश होगा ?
1981
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें