सागर की लहरों से पूछा
मारुत के वेगों से पूछा
कितनी गहरायी है तेरी ?
कितनी सीमायें है तेरी ?
मानव मन पूछा करता है
उत्तर की आशा न पाकर
अट्टहास कर उठता है
मैं किन्तु रहता है सागर
पवन पूर्व वत बहता है
किन्तु गूँज उठती है
अंतर्मन से यह प्रतिध्वनि अपनी
अपनी सीमाओं को जाना ?
अपनी गहराई को जाना ?
गहराई से भी गहरा है
सीमाओं से मुक्त सदा है
मानव का अपना अंतर्मन
कभी अकारण ही भर जाता
कभी उत्प्लवन करता है
कभी सुखों की छाया में भी
अदृश्य अग्नि से जलता है
कभी स्वयम पर इठलाता है
कभी ग्लानि भर देता है
बहुधा यूँ ही धोखे खता
जीवन रीता रह जाता है
बुद्धि की बाहों से छूटा
परिवर्तित धरा से टुटा
बंधन की कारा से छूटा
सारी गतिविधियों से रूठा
मानव मन बहका करता है
मानव मन दहका करता है
1981
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