री अवनि!
क्यूँ छल रही
आकाश को तू ?
घुमती -फिरती सतत
नियमित पथों पर
तू ,गगन के मध्य
रह कर भी, अवनि ओ !
छल रही नीले गगन को
वह गगन
पावन, विरल
गंभीर रह कर ..
चाहता स्पर्श तेरा ही
निरन्तर ..
तू सदा ही क्रूर रह कर
ओ अवनि !क्यूँ ?
कर रही पीड़ित सदा
प्रियवर गगन को ?
1983
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