मैं अनाम हूँ मेरे प्रिय !
तू अनाम मीत है .
है अनाम प्रीत मेरी
इक अनाम गीत है
है निः शब्द भाव मेरे
मूक मेरा कंठ है
है अगम्य रूप तेरा
तू अनंत रूप है
तू असीम ,तू अनंत
तू सदा सदा महिम
मैं अनित्य ,क्षुद्र हूँ मैं
तू निशा का दीप है
प्राण तू है भाव तू
विचार तू है कर्म तू
तू ही तू दिशाओं में है
तू ही नित्य मीत है
मैं भटकती हूँ युगों से
तू विचित्र मीत है
साथ रह के भी न दीखे
कैसी तेरी प्रीत है ?
रूप तेरे हैं अनंत
मैं सभी में खोजती
रूठता रहा है तू ही
मैं मनाती फिरी
छलना है तेरी नियति तो
सहना मेरा स्वभाव है
तू रहे कठोर कितना
करुणा मेरे साथ है
तू अँधेरा बन के फैले
मैं निशा बन जाऊँगी
तू दिवस प्रकाश हो जो
मैं किरण बन आऊँगी ..
1983
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