मेरा "मैं "
कहाँ रख दूँ इसे जाकर ?
कई बार ,
जा जा कर मैंने
इसे अपने हाथों से
दफनाया है!
कई बार मरघटों पे
इसे जलाया है
हर बार ,
हर बार ही मैंने
मात खाई है !
"यह " हर बार मुझ को
बहका कर ,
शैतान सा लौट आया है !
मेरा "मैं ", तुम्हारा और उसका "मैं "
जाने कब से
हमें नाचता रहा है
अजीबो गरीब
मुखौटे रख कर हम पे
अलग -अलग ,
सतता और जलता रहा है !
कि 'तुम" हो यह ,
और 'मैं' हूँ एक ,
एक 'वह ' भी है
फिर भी तुमको मालुम है
की तीनों ,आज भी
जहां भी हैं ,खाली हैं !
अपने -अपने पिंजरों में ,
"मैं " के शिकंजों में ,
अक्सर, फडफडा कर ,
छटपटा कर भी
मुक्ति नहीं ढूँढ़ पाए हैं
और आज तक खड़े हैं -
जकडे हुए ,आकडे हुए ,
इसी धोखे में कि
शायद "मैं " ही हम हैं !
वह शैतान ,कभी मुझ पे
कभी तुम पे , कभी उसे पे
सवार हो कर हंसता है बाकी दोनों पर !
लेकिन अपने अपने पिंजरों में
तीनों एक जैसे फंसे है।।
रोते हैं ,सिसकते हैं पर
दुसरे से मिलते ही
मुस्कुरा पड़ते हैं !
1983
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