हर सुबह खिलते थे अम्बुज,दिशाओं में छाई थी शान्ति
सरोवर की गहराई में शंख -सीपों की बिखरी पांति
बदलती रहती हों ऋतुएँ ,वहां तो सदा एक सा था
न कहीं कोलाहल ही था ,न कही राग-द्वेष का नाम
न कलियों पर भ्रमरों का रोर ,न लतिकाओं पर नभचर नाद
शांतबहने वाली तरुणाई ,प्रात में उसे जगाती थीं
धरा की विश्रान्तियों से दूर ,कहीं छोटे से उपवन में
नित नई धाराओं के मध्य ,मूक वह विचरण करती थी
वहाँ के जितने प्राणी थे ,वृक्ष , तरु और सुकोमल बेल
सभी स्व अवलम्बित ही थे ,नहीं था कही किसी से बैर
इरा उन सब की साथी थी ,सभी से करती थी प्रेम
सभी उसके अपने ही थे ,नहीं कोई था तब तक गैर
जब कभी आते थे उत्सुक , उमगते हंसो के नव यूथ
बहुत क्रीड़ायें करते थे ,अनेकों भांति भांति के रूप
मुस्कुराया वह करती थी देख कर बोले पंछी को
बहुत चंचल सी कृतियाँ थी,इरा के मन के रंजन को
इरा ने वह भी देखा था ,और आकुल पंछी का शोर ..
भी कभी उसने देखा था ,बिलखते हुए कंठ का रोर ...
बहुत अंजाना सा दीखता था बिछुड़ने -मिलने का ये खेल
नहीं कुछ सच्चा लगता था ,सृष्टि में केवल है बस खेल ?
बड़ी सुलझी सी धरा थी, उस नए विकसित जीवन की
कहीं न कोई बाधा थी , व्यस्तता कर्मी जीवन की
नहीं था कुछ अतीत पर रोष, न कोई भावी सपना था
इरा का नन्हा सा एक मन ,ही बहुत उसका अपना था
धरा पर नहीं कोई स्थायी ,सदा प्रति पल परिवर्तन है
जो सदा -सदा रहा स्थायी ,मात्र वह परिवर्तन ही है
नियति का छोटा सा वह क्रम ,संतुलन तो फिर उखड गया
एक रसता के जीवन में एक उत्तुंग शिखर बन गया
प्रकृति कुछ अधिक तभी मुस्काई ,पवन ने गीत कोई गाया
पल्लवों का सर्मर - सर्मर शब्द ,तब मन को छू पाया
नियति से अलग खड़े थे वृक्ष,झुका कर ऊंचे मस्तक को
धरा को छू ..छू... जाती थीं, टहनियाँ फल दे देने को
तनिक सी आशंका की एक, कहीं कलिका मुस्काई थी
अपरिचित सा क्यूँ हैं सब आज ,वह समझ न पायी थी
इन्ही कुछ धाराओं के मध्य, कहीं वह बहती जाती थी
उधर नभ की ऊंचाई में, बदली इक उड़ती जाती थी
अरे किस अकुलाहट के साथ ,इन्द्रधनुषी रंगों के पार
साँवला बादल का टुकड़ा, कर रहा था सूरज को प्यार
चौंक कर पीछे को देखा ,लताओं का पर पर्दा था
झाँक कर पीछे से देखा, उधर दीखा कोई अवधूत
तनिक संकुचाई थीं भ्रकुटी ,अधर पर फिर मुस्काये थे
अपरिचित खड़ा दूर उससे ,पग कहीं फिर सकुचाये थे
बहुत थोड़े से पल बीते, बहुत थोड़े से शब्दों में
मित्रता उपज गयी उनमे ,यूँ ही इक अनजाने पन में
भ्रमण करते थे बन कर मीत, उसी पहचाने उपवन में
अनेकों प्रश्नों के अम्बार ,जागते थे उसके मन में
अपरिचित की गहराई को, नहीं जाना था पगली ने
पूछती थी कितने ही प्रश्न ,अपरिचित पर बतलाता था
ज्ञान -बुद्धि की ही पहचान इरा तो बस कर पायी थी
कहीं छिपते हैं पर कुछ भाव ,नहीं सोच भी पायी थी
कभी रुक जाते थे दोनों ,कभी फिर यूँ चल देते थे
नहीं था बोध कहीं भी मग का ,पग कहीं भी चल देते थे
दिखाता था अनजाना मीत ,अपरिचित अनदेखे संधान
सुपरिचित अपने ही घर में ,इरा बन बैठी थी अनजान
यूँ ही धीर धीरे करके ,कहीं तादात्म्य बन गया एक
विचारों के लघु मंथन में मैत्रि का रत्न बन गया एक
हो उठा फिर वह चंचल ,बोलता था बन कर कुछ बोल
मुझे तो अब चल देना है ,विदा मुझको दो कुछ तो बोल
कहीं आकुल हो आयी वह ,मित्र के खो जाने को जान
तंतु कुछ जुड़ा कहीं ऐसा ,रहे दोनों ही बस अनजान
इरा का छोटा सा आग्रह ,रुक गया फिर उसका वह मीत
पलों के अन्तराल में ही कहीं उठ बैठा.. कोई ज्वार ..
हृदय की भाषा के अनुकूल ,लगा वह करने उससे प्यार
सम्हाला कितना ही अंतस ,किन्तु बिखरे तन मन को देख
पी लिए उसका दिया विषाद, धुंधली सी समझौते की रेख..
************
मुझे भुलावा दे कर चल दो ,तुम अनजाने द्वीपों को
मुझे सहारा दे कर छेड़ो, तुम कुछ नूतन गीतों को
आज तुम्हारे लिए जियूंगी ,आज तुम्हारे आलंबन पर
अपना सब कुछ मैं रख दूंगी ,तुमको आज मनाऊंगी
प्रेम गीत सोये थे मेरे, बरसों से हिम की परतों में
आज तुम्हारा ताप मिला है, उनको पुनः जगाऊँगी
बह जाते थे मेरे आंसू, किस रेतीली भूमि में
मुझे अभी जो ईष्ट मिला है, उस पर अश्रु चढ़ाऊँगी
कहीं खो चुके थे मेरे स्वर ,झंझाओं के नाद में
आज शांत एकांत मिला है ,नूतन राग सुनाउंगी
इरा स्वयं ही द्रवित हो उठी,क्षणिक प्रेम के मोह में
मन की अस्थिरताएं जागी, उसके कोमल कोष में
भावना की भंवर मध्य ,चक्रवातों में ज्यूँ खोयी
उसी एक बिखरे पल से ,मैत्री में पनपी ज्यूँ खाई
लगा ज्यूँ करदी कोई भूल ,फूल थे नहीं ,थे वे शूल
पलट गया पल में फिर चिंतन, बदली मन की धाराएं
पुनः लौट आयी थीं मिलने ,कटु यथार्थ की सीमायें
अहो अपरिचित, कितने हो तुम ,मैं तुम को क्यों कर जानूँ ?
जाते ही आगंतुक के............. इरा सोच में डूब गयी
कभी मिला है मुझे प्यार क्या ,जो मैं तुम को अपनाऊं ?
मैंने अपना सौरभ खोजा , अपना प्रेम जगाया है
क्यूँ कर उसको मैं लुटने दूँ ,अरे, सुनो तुम आशा छोडो
अपनी डगरी पर जाओ ,अपने को जाकर तुम खोजो
अपने मन का प्रेम जगाओ ..अपने को समर्थ बनाओ
मुझे नहीं कुछ लेना देना ,झूठा है सारा बंधन
बहुत सहा है मैंने अब तक, इस मन का कातर क्रंदन
नहीं छिपाया भेद आज तक मैंने दुनिया वालों से
भला मुझे तुम क्या देदोगे अपने रीतों प्यालों से?
नहीं तुम्हारी बातों का मद, मेरे मन को छू पाया
नहीं तुम्हारी प्रेम याचना का यह रूप मुझे भाया
नहीं मांगती तुम से मैं कुछ तुम भी भ्रम में नहीं रहो
नहीं कोई मैं दिव्य मूर्ति हूँ , दिवा स्वप्न में नहीं बहो
करुणा ,प्रेम क्षमा है मुझ में, फिर भी मानव मन ही है
मुझ में भी आक्रोश शेष है ,घृणा न सही 'स्व' तो है
अभी मित्र थी केवल कुछ पल पहले ,फिर दिव्या कहलायी
फिर कहते पाषाण हृदय हो ,नहीं तुम्हे जो अपनाती
और अधिक कुछ भी कह डालो ,सह लुंगी वह भी तुम से
कुछ हो प्रेम मिला था तुम से ,चाहे हो पल दो पल से..
***************
देख रही हूँ यही प्रेम है, मरू मरीचिका ही तो है
रेतीले टीलों से जैसे दो मन,मिल कर एक हुए हों
उड़ती ,पागल गर्म हवा से ..मिलते मिलते बिखर गए हों
जल की छोटी बूंदों से दो ह्रदय..कहीं पर घुले मिले हो
अपना ही अस्तित्व भूल कर ,आत्मसात कर बिसर गए हों
पर यथार्थ का तपता सूरज,उड़ा ले गया हो निर्मल जल
शेष रह गया हो फिर से बस,इच्छाओं का सूखा बर्तन
क्या चला गया था सचमुच ही ,वह मीत छोड़ के उपवन को ?
लगने लगा वो अब बीहड़, जहां पर खिलता था उपवन
दुर जब दृष्टि जाती थी..न दिखता था कोई किसी ओर
अन्दर से बाहर हर ओर ..एक ही छवि और कातर शोर
तुम कुछ तो कह जाते.. जाते ..जाते ..
जाना ही था तो फिर जाते...अपना सब कुछ तुम ले जाते
मेरा कुछ भी न लेजाते..जाते ..जाते ..
पर गए कहाँ तुम ? मेरी चेतनता को लेकर
अपनी प्रतिछाया छोड़ गए..चेतनता ज्यूँ शून्य हो गयी
स्वर के रहते मैं मूक हो गयी...तुम लौटोगे क्या कभी वहां ?
पद चिन्ह हमारे बने जहां ...शायद याद आने पर मेरी
तुम उस धरती पर जाओगे,पर तुमने ये कब जाना
तुमने मुझको कब पहचाना,अब नहीं रही मैं वहां जहाँ
तुमने कुछ मुझ से माँगा था,अब कुछ भी बाकी नहीं रहा
मिलन चिन्ह तो बदल गए ,अब अनजानी पहचानों में
तुम मुझे अपरिचित लगते हो,छोडो देखो अब भी जाकर
कोई उत्सुक सा बैठा है ..जैसे फिर कोई प्रतीक्षा में
सुन्दर सपने से बुनता है,मत रो देना उसके आगे
तुमने जो कुछ भी भुगता है.देखो यह क्रम बस चलने दो
मिलने दो और बिछड़ने दो,आते हो यादों से आंसू
मत उस स्थल पर गिरने दो,याद करो जब आंसू छलके थे
आंसू गिरने से पूर्व कहीं, आंसू आँखों के पी पी कर
दो ह्रदय वहीँ पर छलके थे......
सरोवर की गहराई में शंख -सीपों की बिखरी पांति
बदलती रहती हों ऋतुएँ ,वहां तो सदा एक सा था
न कहीं कोलाहल ही था ,न कही राग-द्वेष का नाम
न कलियों पर भ्रमरों का रोर ,न लतिकाओं पर नभचर नाद
शांतबहने वाली तरुणाई ,प्रात में उसे जगाती थीं
धरा की विश्रान्तियों से दूर ,कहीं छोटे से उपवन में
नित नई धाराओं के मध्य ,मूक वह विचरण करती थी
वहाँ के जितने प्राणी थे ,वृक्ष , तरु और सुकोमल बेल
सभी स्व अवलम्बित ही थे ,नहीं था कही किसी से बैर
इरा उन सब की साथी थी ,सभी से करती थी प्रेम
सभी उसके अपने ही थे ,नहीं कोई था तब तक गैर
जब कभी आते थे उत्सुक , उमगते हंसो के नव यूथ
बहुत क्रीड़ायें करते थे ,अनेकों भांति भांति के रूप
मुस्कुराया वह करती थी देख कर बोले पंछी को
बहुत चंचल सी कृतियाँ थी,इरा के मन के रंजन को
इरा ने वह भी देखा था ,और आकुल पंछी का शोर ..
भी कभी उसने देखा था ,बिलखते हुए कंठ का रोर ...
बहुत अंजाना सा दीखता था बिछुड़ने -मिलने का ये खेल
नहीं कुछ सच्चा लगता था ,सृष्टि में केवल है बस खेल ?
बड़ी सुलझी सी धरा थी, उस नए विकसित जीवन की
कहीं न कोई बाधा थी , व्यस्तता कर्मी जीवन की
नहीं था कुछ अतीत पर रोष, न कोई भावी सपना था
इरा का नन्हा सा एक मन ,ही बहुत उसका अपना था
धरा पर नहीं कोई स्थायी ,सदा प्रति पल परिवर्तन है
जो सदा -सदा रहा स्थायी ,मात्र वह परिवर्तन ही है
नियति का छोटा सा वह क्रम ,संतुलन तो फिर उखड गया
एक रसता के जीवन में एक उत्तुंग शिखर बन गया
प्रकृति कुछ अधिक तभी मुस्काई ,पवन ने गीत कोई गाया
पल्लवों का सर्मर - सर्मर शब्द ,तब मन को छू पाया
नियति से अलग खड़े थे वृक्ष,झुका कर ऊंचे मस्तक को
धरा को छू ..छू... जाती थीं, टहनियाँ फल दे देने को
तनिक सी आशंका की एक, कहीं कलिका मुस्काई थी
अपरिचित सा क्यूँ हैं सब आज ,वह समझ न पायी थी
इन्ही कुछ धाराओं के मध्य, कहीं वह बहती जाती थी
उधर नभ की ऊंचाई में, बदली इक उड़ती जाती थी
अरे किस अकुलाहट के साथ ,इन्द्रधनुषी रंगों के पार
साँवला बादल का टुकड़ा, कर रहा था सूरज को प्यार
चौंक कर पीछे को देखा ,लताओं का पर पर्दा था
झाँक कर पीछे से देखा, उधर दीखा कोई अवधूत
तनिक संकुचाई थीं भ्रकुटी ,अधर पर फिर मुस्काये थे
अपरिचित खड़ा दूर उससे ,पग कहीं फिर सकुचाये थे
बहुत थोड़े से पल बीते, बहुत थोड़े से शब्दों में
मित्रता उपज गयी उनमे ,यूँ ही इक अनजाने पन में
भ्रमण करते थे बन कर मीत, उसी पहचाने उपवन में
अनेकों प्रश्नों के अम्बार ,जागते थे उसके मन में
अपरिचित की गहराई को, नहीं जाना था पगली ने
पूछती थी कितने ही प्रश्न ,अपरिचित पर बतलाता था
ज्ञान -बुद्धि की ही पहचान इरा तो बस कर पायी थी
कहीं छिपते हैं पर कुछ भाव ,नहीं सोच भी पायी थी
कभी रुक जाते थे दोनों ,कभी फिर यूँ चल देते थे
नहीं था बोध कहीं भी मग का ,पग कहीं भी चल देते थे
दिखाता था अनजाना मीत ,अपरिचित अनदेखे संधान
सुपरिचित अपने ही घर में ,इरा बन बैठी थी अनजान
यूँ ही धीर धीरे करके ,कहीं तादात्म्य बन गया एक
विचारों के लघु मंथन में मैत्रि का रत्न बन गया एक
हो उठा फिर वह चंचल ,बोलता था बन कर कुछ बोल
मुझे तो अब चल देना है ,विदा मुझको दो कुछ तो बोल
कहीं आकुल हो आयी वह ,मित्र के खो जाने को जान
तंतु कुछ जुड़ा कहीं ऐसा ,रहे दोनों ही बस अनजान
इरा का छोटा सा आग्रह ,रुक गया फिर उसका वह मीत
पलों के अन्तराल में ही कहीं उठ बैठा.. कोई ज्वार ..
हृदय की भाषा के अनुकूल ,लगा वह करने उससे प्यार
सम्हाला कितना ही अंतस ,किन्तु बिखरे तन मन को देख
पी लिए उसका दिया विषाद, धुंधली सी समझौते की रेख..
************
मुझे भुलावा दे कर चल दो ,तुम अनजाने द्वीपों को
मुझे सहारा दे कर छेड़ो, तुम कुछ नूतन गीतों को
आज तुम्हारे लिए जियूंगी ,आज तुम्हारे आलंबन पर
अपना सब कुछ मैं रख दूंगी ,तुमको आज मनाऊंगी
प्रेम गीत सोये थे मेरे, बरसों से हिम की परतों में
आज तुम्हारा ताप मिला है, उनको पुनः जगाऊँगी
बह जाते थे मेरे आंसू, किस रेतीली भूमि में
मुझे अभी जो ईष्ट मिला है, उस पर अश्रु चढ़ाऊँगी
कहीं खो चुके थे मेरे स्वर ,झंझाओं के नाद में
आज शांत एकांत मिला है ,नूतन राग सुनाउंगी
इरा स्वयं ही द्रवित हो उठी,क्षणिक प्रेम के मोह में
मन की अस्थिरताएं जागी, उसके कोमल कोष में
भावना की भंवर मध्य ,चक्रवातों में ज्यूँ खोयी
उसी एक बिखरे पल से ,मैत्री में पनपी ज्यूँ खाई
लगा ज्यूँ करदी कोई भूल ,फूल थे नहीं ,थे वे शूल
पलट गया पल में फिर चिंतन, बदली मन की धाराएं
पुनः लौट आयी थीं मिलने ,कटु यथार्थ की सीमायें
अहो अपरिचित, कितने हो तुम ,मैं तुम को क्यों कर जानूँ ?
जाते ही आगंतुक के............. इरा सोच में डूब गयी
कभी मिला है मुझे प्यार क्या ,जो मैं तुम को अपनाऊं ?
मैंने अपना सौरभ खोजा , अपना प्रेम जगाया है
क्यूँ कर उसको मैं लुटने दूँ ,अरे, सुनो तुम आशा छोडो
अपनी डगरी पर जाओ ,अपने को जाकर तुम खोजो
अपने मन का प्रेम जगाओ ..अपने को समर्थ बनाओ
मुझे नहीं कुछ लेना देना ,झूठा है सारा बंधन
बहुत सहा है मैंने अब तक, इस मन का कातर क्रंदन
नहीं छिपाया भेद आज तक मैंने दुनिया वालों से
भला मुझे तुम क्या देदोगे अपने रीतों प्यालों से?
नहीं तुम्हारी बातों का मद, मेरे मन को छू पाया
नहीं तुम्हारी प्रेम याचना का यह रूप मुझे भाया
नहीं मांगती तुम से मैं कुछ तुम भी भ्रम में नहीं रहो
नहीं कोई मैं दिव्य मूर्ति हूँ , दिवा स्वप्न में नहीं बहो
करुणा ,प्रेम क्षमा है मुझ में, फिर भी मानव मन ही है
मुझ में भी आक्रोश शेष है ,घृणा न सही 'स्व' तो है
अभी मित्र थी केवल कुछ पल पहले ,फिर दिव्या कहलायी
फिर कहते पाषाण हृदय हो ,नहीं तुम्हे जो अपनाती
और अधिक कुछ भी कह डालो ,सह लुंगी वह भी तुम से
कुछ हो प्रेम मिला था तुम से ,चाहे हो पल दो पल से..
***************
देख रही हूँ यही प्रेम है, मरू मरीचिका ही तो है
रेतीले टीलों से जैसे दो मन,मिल कर एक हुए हों
उड़ती ,पागल गर्म हवा से ..मिलते मिलते बिखर गए हों
जल की छोटी बूंदों से दो ह्रदय..कहीं पर घुले मिले हो
अपना ही अस्तित्व भूल कर ,आत्मसात कर बिसर गए हों
पर यथार्थ का तपता सूरज,उड़ा ले गया हो निर्मल जल
शेष रह गया हो फिर से बस,इच्छाओं का सूखा बर्तन
क्या चला गया था सचमुच ही ,वह मीत छोड़ के उपवन को ?
लगने लगा वो अब बीहड़, जहां पर खिलता था उपवन
दुर जब दृष्टि जाती थी..न दिखता था कोई किसी ओर
अन्दर से बाहर हर ओर ..एक ही छवि और कातर शोर
तुम कुछ तो कह जाते.. जाते ..जाते ..
जाना ही था तो फिर जाते...अपना सब कुछ तुम ले जाते
मेरा कुछ भी न लेजाते..जाते ..जाते ..
पर गए कहाँ तुम ? मेरी चेतनता को लेकर
अपनी प्रतिछाया छोड़ गए..चेतनता ज्यूँ शून्य हो गयी
स्वर के रहते मैं मूक हो गयी...तुम लौटोगे क्या कभी वहां ?
पद चिन्ह हमारे बने जहां ...शायद याद आने पर मेरी
तुम उस धरती पर जाओगे,पर तुमने ये कब जाना
तुमने मुझको कब पहचाना,अब नहीं रही मैं वहां जहाँ
तुमने कुछ मुझ से माँगा था,अब कुछ भी बाकी नहीं रहा
मिलन चिन्ह तो बदल गए ,अब अनजानी पहचानों में
तुम मुझे अपरिचित लगते हो,छोडो देखो अब भी जाकर
कोई उत्सुक सा बैठा है ..जैसे फिर कोई प्रतीक्षा में
सुन्दर सपने से बुनता है,मत रो देना उसके आगे
तुमने जो कुछ भी भुगता है.देखो यह क्रम बस चलने दो
मिलने दो और बिछड़ने दो,आते हो यादों से आंसू
मत उस स्थल पर गिरने दो,याद करो जब आंसू छलके थे
आंसू गिरने से पूर्व कहीं, आंसू आँखों के पी पी कर
दो ह्रदय वहीँ पर छलके थे......
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