जल के प्रति पल पड़ती थापें,
कुछ मृदु तो कुछ कटु सी हैं ,
तरणि को एहसास भला क्या ,
जल क्या गहरा -उथला है !
तैर रही नाविक के बूते ,
हर पल संशय -दुविधा है
पालें वे जो फूल रही हैं ,
कोरे मद में झूल रही हैं ,
जाने किसके आदेशों पर .
आगे -पीछे झूम रही हैं ,
हर इक पल रोमांच भरा है ,
हर पल शंकित कम्पन है ,
किस तट पर पहुंचेगी तरणि ,
कभी पार लग पायेगी ?
कभी किसी पर छोड़ व्यथा सब
भार मुक्त हो पायेगी ?
1981
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