मूंद कर दृग द्वार खोलूँ चेतना के द्वार ,
मैं सुरभि सी आज डोलूँ बन्धनों के पार ,
मैं भुला कर विश्व सारा तोड़ सब से मोह ,
सिमट कर प्राणों में अपने,छोड़ दूँ व्यामोह ,
फिर अनिल सी हो प्रवाहित, विचरूँ सब के द्वार
प्राणमय उच्छ्वास बन दूँ विश्व को निज प्यार ,
मूँद कर दृग द्वार खोलूं चेतना के द्वार ..
शुभ्र दामिनी सी दमक भ्रम बादलों के पार ,
मैं मिटा मस्तिष्क नभ का अज्ञानमय अँधकार ,
फिर गिरूँ आकाश से कर कान्ति का श्रृंगार .
भस्म कर दूँ चिर निहित दुर्वृत्ति मय संसार ..
मूंद कर दृग द्वार खोलूँ चेतना के द्वार ..
मैं सुरभि सी आज डोलूँ बन्धनों के पार ..
1985
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