आज झंकारों में झंकार
आज पागल मन पागल प्राण
उठा कोलाहल कैसा आज ?
विकल होने लगता मन प्राण
नहीं सुन पाता कोई स्वर
नहीं कुछ ध्वनि की है पहचान
अनमना सा लगता संसार .
अपरिचित लगता हर संधान
खोखला सा लगता जीवन
धुंये में घुला हुआ संसार ..
उमड़ता अनजाना तूफ़ान
बिना पानी बिना मंझधार ..
बिन दस्तक खुल जाते द्वार
निकल जाती मुंह से क्या बात ..
शेष छिप रह जाते जो भाव
लेखनी ने कब किया छिपाव ?
बचा रह जाता उजड़ा गाँव
बाद में लुटने के कब ठाँव ?
बिजलियाँ जब भी चमकी हैं
अँधेरा गहराता जाता ..
वह काला पावस बादल- दल
अधिक उमड़ाता घुमड़ाता
कभी सूखे से उपवन में
मलय संदेसा दे जाता
सुरभियों का झोंका आकर
सुखद स्मृतियाँ दे जाता ..
1981
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें