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बुधवार, 17 जुलाई 2013

रात के स्वर

देखो ,देखो न ..
रात , कितनी गहरा रही है
काली और गाढ़ी होती जा रही है  
कोई तारा भी, नज़र आता, काश !
ये काला  -बड़ा,फैला, पेड़ 
इतना भी दिखने नहीं देता !
मैं हूँ तो कहीं,पर 
फिर भी नहीं हूँ !
रोती तो नहीं, पर 
हंसती भी नहीं हूँ !
कहती तो नहीं कुछ ,पर 
चुप भी नहीं हूँ !
अजीब हालत है मेरी ,
लेकिन तू ?
तू है तो शायद 
यहीं -कहीं 
या शायद बिलकुल भी  नहीं .
फिर भी 
तू कहीं तो है न ?
शायद वहां ,जहाँ मैं 
हूँ तो लेकिन 
फिर भी नहीं हूँ .
जिस तरह की 
तू है यहाँ !
हर तरफ ,हर जगह 
मेरे अन्दर -सोया ज्वार ,
मेरे प्राणों के साथ- साथ,
मेरी धड़कन की बन के ताल ,
और भी 
जाने क्या क्या 
शायद ,सब कुछ 
बस तू ही है !
मैं तो नहीं ..
तू ही है न 
मैं तो नहीं .. !
1983

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