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शुक्रवार, 19 जुलाई 2013

पानी की बूंद

कभी बन के बूंद पानी की
बादलों से गिरती हूँ
काँपती हूँ ,डरती हूँ ,
यूँ ही सहमी फिरती हूँ
क्या पता -किधर जाऊं ?
सोख ले मुझे माटी,
या नहर में घुल जाऊं .
काश ऐसा भी हो कि
सीप कोई खाली हो,
एक बूंद हो कर भी
मोती  में बदल जाऊं !
1983
 

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