कल जब इस घर में
मैंने कदम रखा था
जब इसकी नींव डाली गयी
तुम्हारे उपकारों ने तभी
दीमक लगा दी थी।
फिर भी मुझे यहीं रहना था
और इसीलिए इतना कहना था
कल तक तुम यहाँ से गुज़रते रहे थे।
कभी कोई शुश्बू किसी बाग़ से,
कभी चन्दन की सुगंध मंदिर से ,
कभी बलि चढ़ते पशु रक्त के छींटे
कभी अनेकों दुर्गंधों का मिश्रण
लाकर मुझे सताते रहे थे।
कल जब मैं इस घर को छोड़ दूँ तो
तुम यहाँ आकर बस जाना।
लेकिन तुम ऐसा नहीं करोगे
तो फिर जब्तुम देखो कि यह घर
पूरी तरह दीमक से खोखला हो चूका है,
इसकी दीवारों का रंग स्याह हो गया है ,
आयर यह वस्तुतः जर्जर हो चूका है ,
तब ही तुम चले आना ...
किसी आंधी की तरह ..
और इसे मिटटी में मिला जाना
पुरी तरह !
1980
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