फिर से व्याकुल अंतस मेरा,
फिर से प्राण अधीर हुए हैं.
फिर से तुझ पे रोष उमड़ता,
फिर से दृग,मयनीर हुए हैं,
सुख का तो आभास मात्र है ,
दुःख के श्यामल मेरु खड़े हैं,
संतुष्टि का स्वप्न शेष है ,
अतृप्ति मय मार्ग पड़े हैं .
फिर से रिक्त हो चला है मन,
फिर सब बंधन चटक गए हैं .
पाने की आशा धूमिल है ,
खोने के अनुभव कितने हैं,
स्वप्नमयी सृष्टि का छल है,
छल -जल से घट भरे हुए हैं,
फिर दुःख सिक्त हो चला जीवन ,
फिर आशा तृण बिखर गए हैं,
फिर से व्याकुल अंतस मेरा,
फिर से प्राण अधीर हुए हैं !
1984
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