पथ से बहक गयी थी
मेरे अनंत प्रियतम !
पर आज लौटती हूँ
तेरे समीप प्रियतम !
वह कालिमा अंधेरी
अब टूटने लगी है
एक रात्रि तम में डूबी,
अब उबर रही है
मेरे रुंधे स्वरों में
अपने स्वरों को जोड़ो
लो टूटता अँधेरा
नव गीत मेरे जोड़ो
शाश्वत स्वरों में अपने
मैं गीत गाऊं तेरे
मेरी रगों में बस जा
तू प्राण बन के मेरे !
तेरी अभय प्रतीक्षा
करती रहूँ सतत मैं
तू काव्य बन के बरसे
उजड़े हुए भवन में
तू श्वांस बन के महके
मेरे मदिर निलय में
तू भाव बन के बिखरे
स्पंदित ह्रदय में ..
1983
सुंदर रचना !
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