एक अजनबी झीज
और उत्साह से भरी
आ खड़ी होती हूँ
कांच के सामने
शायद कुछ बोले यह ,
कोई तो सराग मिले -
कि मैं हूँ क्या ?
मेरे अन्दर की आग से,
कांच पिघल तो नहीं जाता ..
मेरे आक्रोश से टूटता भी नहीं ...
कुछ भी तो राख नहीं होता ..
टूट कर मिट नहीं पाता ..
'मैं " ऐसी ही तो हूँ
इसी तरह ,टूट कर भी
मिट नहीं पाती ..
जोडून तो जुड़ भी नहीं पाती ..
जलना है ,सुलगना है
पर राख नहीं होना है ..
गिरना है पड़ना है
फिर भी रुक तो नहीं जाना है
बिखरना भी है ,उखड़ना भी
लेकिन फिर भी
मुरझा तो नहीं जाना है ..
अभी तो बस जीना है और
जीते जाना है ...
1983
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