यह उपवन अनजान निरा !
हरियाली देखी इसकी ,
हाँ रूप अनेकों देखे हैं
कुछ फ़ुल खिले है नए यहाँ
हाँ सुन्दर है मकरंद भरे
हैं दीख रही कुछ नयी कली
कितने सुन्दर हैं रंग भरे !
रंगों का मिश्रण सुरभि में ,
सुरभि में भावों का जमघट !
रे उडा यहाँ तो मेरा मन
तितली बन कर !
कितने फूलों पर मंडराया
कितनो के पराग चुने
फिर थकित हो गया
जा बैठा सूखे तिनके पर
न रूप रहा ,न रंग रहा
न रही सुरभि न रहा मोह
जब दृष्टि गयी सहसा उन पर
जो फुल पड़े थे मुरझाये
कुछ अवशेष लिए थे संग -
निज यौवन के ..
कुछ गाथाएँ गाते थे
निज गौरव की ..
थे म्लान .वस्तुतः धूसर थे
माटी में मिलने को उत्सुक थे
मन चौंक गया ,सहसा सहमा ..
सब पंख झर चुके थे मेरे ..
फिर भ्रमित प्रश्न चिन्ह बन गया वहां
यह सत्य कहाँ ?
यह स्वप्न रहा ..!
1980
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