अंधियारे में चल रे अब तू
उजियारे को जाने दे !
जब तक था तू उजियारे में
देखे तूने रंग अपार
कहीं सुमन ,कुछ उपवन थे
तो कुछ माटी के सज्जित साज
भ्रमित कर रहे ये सब तुझ को
इधर -उधर तू मोहा व्यर्थ
हाथ न आती कोई तितली
न पाया तूने मकरंद
अपने को भी भुला चला और
आगे भी कुछ पाया न
अब इस संध्या को तू छू ले
अंधियारे में जब जब आता है
संभवतः तू डर जाता है
रे ठैर ,न यूँ तू भागा जा
कुछ पल ,रुक,सोच ,विचार ज़रा
ओ धैर्य बाँध रे पागल मन !
पायेगा दिव्य प्रकाश यहाँ
जो मिला नहीं उजियारे में
उससे बढ़ कर उससे पावन
तू अन्तःस्थल में पायेगा
उजियारे में ढूंढे साधन
अंधियारे में पहचान ज़रा
अपनी ही छवि का ध्यान लगा
यहछवि ही तेरा ईश्वर है
यह ही तेरा हर साधन है
1980
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