दर्द उठता हो किसी कोने में
सारी बत्तियां जैसे बुझ जाती हों
कुछ सुलगने लगता हो सारे कमरों में
झरोखों में दम घोटता धुआँ आकर
जम जातो हो ,बहने लगता हो
कोहरे भरे पागल मोहल्ले में
कुछ झोंके पागल हवा के
बर्फीले से माहौल में
फिर किसी लौ का जल उठना
रोशनी और अंधेरो का कूच कर जाना
और फिर
कविता बन जाना ..
1977
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