रोको न प्रिय इस धारा को मैं जिसमे बहता जल कण हूँ
मैं नहीं बुलबुले से बढ़ कर ,बिखरा जो फिर संवरा बन कर
मैं इस में बहती जाती हूँ ..हूँ इस प्रवाह में डूब रही
मेरे मन का यह झरना ,आँखों से नीर निकलना है
यह त्वरित कभी है मंद कभी है स्मृति भी ,निर्झर भी
अद्भुत बहती यह धारा है है हिमकण भी हैस्फुलिंग भी
यह दिग दिगंत विस्तीर्ण हुयी अविरल ,अक्षुण .प्रवाह मयी
तुम शिलाखण्ड इस निर्झर के ,तुम उद्गम हो तुम केंद्रबिंदु
मेरा या वेग अपावन मन है एक बिंदु तुम महासिन्धु
तुम शांत तरल ,गंभीर उदधि ,लहरे उठ कर हो शांत जहां
मेरा यह भग्न ह्रदय आकर पा जाए अक्षय शान्ति जहां
हे उदधि ! बनो उद्देश्य मेरे उड़ते ,तिरते पागल मन का ..
1977
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